(सबसे बड़ा भक्त ) Krishna says "If you single-pointedly worship me, I will take care of all your needs". (The greatest devotee that remains is Karma) ,(Four kinds of people engage in Lord Krishna's devotion—the distressed, the curious, the seekers of worldly possessions, and those who are situated in knowledge) (भागवत के अनुसार, भक्तों के तीन प्रकार हैं। "वह जो अपने प्रिय देवता को हर वस्तु में देखता है और इसके विपरीत होता है और फलस्वरूप सभी जगह परिपूर्णता की भावना रखता है। वह एक श्रेष्ठ भक्त है। वह जो भगवान से प्यार करता है और अपने भक्तों के प्रति दयालु है, वह अज्ञानी और अपने दुश्मनों के प्रति उदासीन है। एक निष्ठावान भक्त। वह, जो पारंपरिक विश्वास से है, छवियों में हरि की पूजा करता है, लेकिन उसके भक्तों या दूसरों के लिए कोई सम्मान नहीं है, वह एक भक्त है)

One of the reason for the devotees facing problem is that lord wants his devotees to set a good example for mass of people by showing how a devotee faces difficulties and overcome them, so that the general people can take inspiration from them.

Krishna sometimes put His devotees through difficulties to purify them and to deepen their exclusive dependence and devotion. He may do so as an exchange of transcendental loving reciprocation, simply to intensify their feelings of dependence, longing and attachment to Him.

अर्जुन को अहंकार हो गया कि वही भगवान के सबसे बड़े भक्त हैं। उनको श्रीकृष्ण ने समझ लिया। एक दिन वह अर्जुन को अपने साथ घुमाने ले गए।  रास्ते में उनकी मुलाकात एक गरीब ब्राह्मण से हुई। उसका व्यवहार थोड़ा विचित्र था। वह सूखी घास खा रहा था और उसकी कमर में तलवार लटक रही थी। अर्जुन ने पूछा, ‘‘आप तो अहिंसा के पुजारी हैं। जीव हिंसा के भय से सूखी घास खाकर अपना गुजारा करते हैं लेकिन फिर हिंसा का यह उपकरण तलवार क्यों आपके साथ है?’’ 


ब्राह्मण ने जवाब दिया, ‘‘मैं कुछ लोगों को दंडित करना चाहता हूं।’’ 


‘‘आपके शत्रु कौन है?’’ अर्जुन ने जिज्ञासा जाहिर की। 


ब्राह्मण ने कहा, ‘‘मैं चार लोगों को खोज रहा हूं, ताकि उनसे अपना हिसाब चुकता कर सकूं।’’ 


सबसे पहले तो मुझे नारद की तलाश है। नारद मेरे प्रभु को आराम नहीं करने देते, सदा भजन-कीर्तन कर उन्हें जागृत रखते हैं। फिर मैं द्रौपदी पर भी बहुत क्रोधित हूं। उसने मेरे प्रभु को ठीक उस समय पुकारा, जब वह भोजन करने बैठे थे। उन्हें तत्काल खाना छोड़ पांडवों को दुर्वासा ऋषि के शाप से बचाने जाना पड़ा। उसकी धृष्टता तो देखिए। उसने मेरे भगवान को जूठा खाना खिलाया। ‘‘आपका तीसरा शत्रु कौन है?’’ अर्जुन ने पूछा। 


वह है हृदयहीन प्रह्लाद। उस निर्दयी ने मेरे प्रभु को गर्म तेल के कड़ाह में प्रविष्ट कराया, हाथी के पैरों तले कुचलवाया और अंत में खंभे से प्रकट होने के लिए विवश किया। और चौथा शत्रु है अर्जुन। उसकी दुष्टता देखिए। उसने मेरे भगवान को अपना सारथी बना डाला। उसे भगवान की असुविधा का तनिक भी ध्यान नहीं रहा। कितना कष्ट हुआ होगा मेरे प्रभु को। यह कहते ही ब्राह्मण की आंखों में आंसू आ गए।


यह देख अर्जुन का घमंड चूर-चूर हो गया। उसने श्रीकृष्ण से क्षमा मांगते हुए कहा, ‘‘मान गया प्रभु, इस संसार में न जाने आपके कितने तरह के भक्त हैं। मैं तो कुछ भी नहीं हूं।’’    

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